गुप्ताजी
फिर आज बरामदे में खड़े हैं
धीमी हवा और मंद मंद जलती लालटेन
याद दिलाती है बीते हुए कल की
कल से आज तक में
कितना कुछ बदल गया है
कितना कुछ सीखकर आये हैं
गुप्ताजी
थोड़ा लड़खड़ाते,
थोड़ा बाग़ में झूलों की मौज की तरह
थोड़ा टूटी चप्पल में
थोड़ा नए बूट की चमक की तरह
आज फिर बरामदे में खड़े हैं गुप्ताजी
आँखों पर मोटा चश्मा चढ़ाकर भी
जाने क्यों सब धुंधला धुंधला सा ही है
आज से आने वाले कल में
कितना कुछ बदल जायेगा
क्या सीखने की उत्सुकता भी उतनी ही होगी
गुप्ताजी
अब लड़खड़ाने से थोड़ा ज़्यादा डरते हैं
झूलों की मौजें तो पुरानी बातें हैं
टूटी चप्पलें भी छोड़ आए पीछे
लेकिन बूट की चमक में अब वो रास नहीं आता
अरे गुप्ताजी,
परायी सी हंसी लिए
कब तक इस कल आज और कल की
बेकार सोच में डूबे रहोगे
रात बहुत हो चुकी है
जाओ सो जाओ
कल सुबह फिर दफ़्तर जाना है