शीशे की दीवारों में
कैद था जाने कब से मन
कोशिश तो की
पर चाह नहीं थी
इन रंग भरी दीवारों को
तोड़ कर बहार आने की
इन नए नए रंगों में रोज़
जग दिखता कितना सुन्दर था
बाहर की बेरंग दुनिया से शायद
कैद भली थी शामियाने की
पर क्या हुआ जाने एक दिन
जो आस जगी अनोखी एक
दम घुटा और हमने फिर
तुड़वा डाला दीवारों को
टूटे शीशों का दर्द हुआ
नाज़ुक कोमल से पावो में
धुंधला गयी डरी सी नज़र
जब अश्क बहे इन आखों से
पर समय बीता
हम आगे बढ़े
कम हुआ दर्द और धुंधलापन
रह गए हम एकदम चकित जब
पाया जग को को और भी रौशन
हुए अचंभित चकाचौंध से
उल्लास भर गया रग रग में
नया है कितना कुछ देखने को
इस बहुप्रदर्शक जगमग जग में
ओ साथी तू भी निकल अब बाहर
क्यों शीशे में कैद, भयभीत है?
आ नाच यहाँ खुले आँगन में
इस नए जग का अजब ही कुछ संगीत है