~
सोच समझ कर
चले थे इन पर
अब भी फिर क्यों
लगते अजनबी ये रस्ते हैं
क्यों आए कोई
रोने संग हमारे
हम तो अपनी इस
हालत पर खुद भी हँसते हैं
~
जाने ये कब हुआ
दूसरों कि नज़र से
खुद को परखने लग गए
देखते थे सपने कईं
बेपरवाह नींद में
जाने कब हम
नींद से जग गए
~
संदूक में रख संजोया जिनको
दिल के वो कुछ अरमान ही तो थे
जाने क्यूँ ज़िन्दगी उन्हें भी
भरी सड़क पर, खोल
तमाशा बना गयी
~
उम्मीदों के साये में
हम जब फिर लम्हे जीने लगे
ज़िन्दगी ने उन पर भी आकर
एक नया सवेरा कर दिया
~
यूँ तो होगा जोशे-जूनून कल फिर
पर ज़िन्दगी के इस अचम्भे पथ पर
आज भरोसा आधा है
होगी नयी एक सुबह कल फिर
पर इन कृत्रिम उजालों के बीच छुपा ये
आज अँधेरा ज़्यादा है
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